हिन्दू धर्मं दर्शन  
 HINDU DHARMA DARSHAN

हिन्दू धर्म एक धर्म या जीवन पद्धति है जिसके अनुयायी अधिकांशतः भारत और नेपाल में हैं। यह विश्व का प्राचीनतम धर्म है। इसे 'वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म' भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि इसकी उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले से है।यह वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए है। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में हैं। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है।

भारतवर्ष को प्राचीन ऋषियों ने "हिन्दुस्थान" नाम दिया था, जिसका अपभ्रंश "हिन्दुस्तान" है। "बृहस्पति आगम" के अनुसार: हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्।  तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥ अर्थात् हिमालय से प्रारम्भ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।

"हिन्दू" शब्द "सिन्धु" से बना माना जाता है। संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं - पहलासिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र मे मिलती है, दूसरा - कोई समुद्र या जलराशि। ऋग्वेद की नदी स्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ थीं: सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि(सतलुज), विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)। एक अन्य विचार के अनुसार हिमालय के प्रथम अक्षर "हि" एवं इन्दु का अन्तिम अक्षर "न्दु", इन दोनों अक्षरों को मिलाकर शब्द बना "हिन्दु" और यह भू-भाग हिन्दुस्थान कहलाया। हिन्दू शब्द उस समय धर्म के बजाय राष्ट्रीयता के रूप में प्रयुक्त होता था। चूँकि उस समय भारत में केवल वैदिक धर्म को ही मानने वाले लोग थे, बल्कि तब तक अन्य किसी धर्म का उदय नहीं हुआ था इसलिए "हिन्दू" शब्द सभी भारतीयों के लिए प्रयुक्त होता था। भारत में केवल वैदिक धर्मावलम्बियों (हिन्दुओं) के बसने के कारण कालान्तर में विदेशियों ने इस शब्द को धर्म के सन्दर्भ में प्रयोग करना शुरु कर दिया।

हिन्दू धर्म में कोई एक अकेले सिद्धान्तों का समूह नहीं है जिसे सभी हिन्दुओं को मानना ज़रूरी है। ये तो धर्म से ज़्यादा एक जीवन का मार्ग है। हिन्दुओं का कोई केन्द्रीय धर्म संगठन नहीं है और न ही कोई  केन्द्रीय धर्म गुरू। इसके अन्तर्गत कई मत और सम्प्रदाय आते हैं और सभी को बराबर श्रद्धा दी जाती है। धर्मग्रन्थ भी कई हैं। फ़िर भी, वो मुख्य सिद्धान्त, जो ज़्यादातर हिन्दू मानते हैं, इन सब में विश्वास: धर्म (वैश्विक क़ानून), कर्म (और उसके फल), पुनर्जन्म का सांसारिक चक्र, मोक्ष (सांसारिक बन्धनों से मुक्ति-जिसके कई रास्ते हो सकते हैं) और बेशकईश्वर। हिन्दू धर्म स्वर्ग और नरक को अस्थायी मानता है। हिन्दू धर्म के अनुसार संसार के सभी प्राणियों में आत्मा होती है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो इस लोक में पाप और पुण्य, दोनो कर्म भोग सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। हिन्दू धर्म में चार मुख्य सम्प्रदाय हैं : वैष्णव (जो भगवान विष्णु को परमेश्वर मानते हैं), शैव (जो भगवान शिव को परमेश्वर मानते हैं), शाक्त (जो देवी को परमशक्ति मानते हैं) और स्मार्त (जो भगवान के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं)। लेकिन ज्यादातर हिन्दू स्वयं को किसी भी सम्प्रदाय में वर्गीकृत नहीं करते हैं।  

संक्षेप मेंहिन्दुत्व के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं- गोषु भक्तिर्भवेद्यस्य प्रणवे च दृढ़ा मतिः। पुनर्जन्मनि विश्वासः स वै हिन्दुरिति स्मृतः।। अर्थात- गोमाता में जिसकी भक्ति हो, प्रणव जिसका पूज्य मन्त्र हो, पुनर्जन्म में जिसका विश्वास हो-वही हिन्दू है मेरुतन्त्र ३३ प्रकरण के अनुसार 'हीनं दूषयति स हिन्दुअर्थात जो हीन (हीनता या नीचता) को दूषित समझता है (उसका त्याग करता है) वह हिन्दु है। लोकमान्य तिलक के अनुसार- असिन्धोः सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका। पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः।। अर्थात्- सिन्धु नदी के उद्गम-स्थान से लेकर सिन्धु (हिन्द महासागर) तक सम्पूर्ण भारत भूमि जिसकी पितृभू (अथवा मातृ भूमि) तथा पुण्यभू (पवित्र भूमि) है, (और उसका धर्म हिन्दुत्व है) वह हिन्दु कहलाता है। हिन्दु शब्द मूलतः फा़रसी है इसका अर्थ उन भारतीयों से है जो भारतवर्ष के प्राचीन ग्रन्थों, वेदों, पुराणों में वर्णित भारतवर्ष की सीमा के मूल एवं पैदायसी प्राचीन निवासी हैं। वेद प्रतिपादित वर्णाश्रम रीति से वैदिक धर्म में विश्वास रखने वाला हिन्दू है। 

हिन्दू धर्म के सिद्धान्त के कुछ मुख्य बिन्दु:
1. ईश्वर एक नाम अनेक.
2. ब्रह्म या परम तत्त्व सर्वव्यापी है।
3. ईश्वर से डरें नहीं, प्रेम करें और प्रेरणा लें.
4. हिन्दुत्व का लक्ष्य स्वर्ग-नरक से ऊपर.
5. धर्म की रक्षा के लिए ईश्वर बार-बार पैदा होते हैं।
6. परोपकार पुण्य है, दूसरों को कष्ट देना पाप है।
7. जीवमात्र की सेवा ही परमात्मा की सेवा है।
8. स्त्री आदरणीय है।
9. सती का अर्थ पति के प्रति सत्यनिष्ठा है।
10. हिन्दुत्व का वास हिन्दू के मन, संस्कार और परम्पराओं में.
11. पर्यावरण की रक्षा को उच्च प्राथमिकता.
12. हिन्दू दृष्टि समतावादी एवं समन्वयवादी.
13. आत्मा अजर-अमर है।
14. सबसे बड़ा मंत्र गायत्री मंत्र.
15. हिन्दुओं के पर्व और त्योहार खुशियों से जुड़े हैं।
16. हिन्दुत्व का लक्ष्य पुरुषार्थ है और मध्य मार्ग को सर्वोत्तम माना गया है।
17. हिन्दुत्व एकत्व का दर्शन है।
                                                                    
हिन्दू धर्म की अवधारणाएँ एवं परम्पराएँ
हिन्दू धर्म की प्रमुख अवधारणाएं निम्नलिखित हैं-

ब्रह्म- ब्रह्म को सर्वव्यापी, एकमात्र सत्ता, निर्गुण तथा सर्वशक्तिमान माना गया है। वास्तव में यह एकेश्वरवाद के 'एकोऽहं, द्वितीयो नास्ति' (अर्थात् एक ही है, दूसरा कोई नहीं) के 'परब्रह्म' हैं, जो अजर, अमर, अनन्त और इस जगत का जन्मदाता, पालनहारा व कल्याणकर्ता है।

आत्मा- ब्रह्म को सर्वव्यापी माना गया है अत: जीवों में भी उसका अंश विद्यमान है। जीवों में विद्यमान ब्रह्म का यह अशं ही आत्मा कहलाती है, जो जीव की मृत्यु के बावजूद समाप्त नहीं होती और किसी नवीन देह को धारण कर लेती है। अंतत: मोक्ष प्राप्ति के पश्चात् वह ब्रह्म में लीन हो जाती है।

पुनर्जन्म- आत्मा के अमरत्व की अवधारणा से ही पुनर्जन्म की भी अवधारणा पुष्ट होती है। एक जीव की मृत्यु के पश्चात् उसकी आत्मा नयी देह धारण करती है अर्थात् उसका पुनर्जन्म होता है। इस प्रकार देह आत्मा का माध्यम मात्र है।

योनि- आत्मा के प्रत्येक जन्म द्वारा प्राप्त जीव रूप को योनि कहते हैं। ऐसी 84 लाख योनियों की कल्पना की गई है, जिसमें कीट-पतंगे, पशु-पक्षी, वृक्ष और मानव आदि सभी शामिल हैं। योनि को आधुनिक वैज्ञानिक भाषा में जैव प्रजातियाँ कह सकते हैं।

कर्मफल- प्रत्येक जन्म के दौरान जीवन भर किये गये कृत्यों का फल आत्मा को अगले जन्म में भुगतना पड़ता है। अच्छे कर्मों के फलस्वरूप अच्छी योनि में जन्म होता है। इस दृष्टि से मनुष्य सर्वश्रेष्ठ योनि है। परन्तु कर्मफल का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति अर्थात् आत्मा का ब्रह्मलीन हो जाना ही है।

स्वर्ग-नरक- ये कर्मफल से सम्बंधित दो लोक हैं। स्वर्ग में देवी-देवता अत्यंत ऐशो-आराम की ज़िन्दगी व्यतीत करते हैं, जबकि नरक अत्यंत कष्टदायक, अंधकारमय और निकृष्ट है। अच्छे कर्म करने वाला प्राणी मृत्युपरांत स्वर्ग में और बुरे कर्म करने वाला नरक में स्थान पाता है।

मोक्ष- मोक्ष का तात्पर्य है- आत्मा का जीवन-मरण के दुष्चक्र से मुक्त हो जाना अर्थात् परमब्रह्म में लीन हो जाना। इसके लिए निर्विकार भाव से सत्कर्म करना और ईश्वर की आराधना आवश्यक है।

चार युग- हिन्दू धर्म में काल (समय) को चक्रीय माना गया है। इस प्रकार एक कालचक्र में चार युग-कृत (सत्य), सत त्रेता, द्वापर तथा कलि-माने गये हैं। इन चारों युगों में कृत सर्वश्रेष्ठ और कलि निकृष्टतम माना गया है। इन चारों युगों में मनुष्य की शारीरिक और नैतिक शक्ति क्रमश: क्षीण होती जाती है। चारों युगों को मिलाकर एक महायुग बनता है, जिसकी अवधि 43,20,000 वर्ष होती है, जिसके अंत में पृथ्वी पर महाप्रलय होता है। तत्पश्चात् सृष्टि की नवीन रचना शुरू होती है।

चार वर्ण- हिन्दू समाज चार वर्णों में विभाजित है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। ये चार वर्ण प्रारम्भ में कर्म के आधार पर विभाजित थे। ब्राह्मण का कर्तव्य विद्यार्जन, शिक्षण, पूजन, कर्मकांड सम्पादन आदि है, क्षत्रिय का धर्मानुसार शासन करना तथा देश व धर्म की रक्षा हेतु युद्ध करना, वैश्यों का कृषि एवं व्यापार द्वारा समाज की आर्थिक आवश्यकताएँ पूर्ण करना तथा शूद्रों का अन्य तीन वर्णों की सेवा करना एवं अन्य ज़रूरतें पूरी करना। कालांतर में वर्ण व्यवस्था जटिल होती गई और यह वंशानुगत तथा शोषणपरक हो गई। शूद्रों को अछूत माना जाने लगा। बाद में विभिन्न वर्णों के बीच दैहिक सम्बन्धों से अन्य मध्यवर्ती जातियों का जन्म हुआ। वर्तमान में जाति व्यवस्था अत्यंत विकृत रूप में दृष्टिगोचर होती है।

चार आश्रम- प्राचीन हिन्दू संहिताएँ मानव जीवन को 100 वर्ष की आयु वाला मानते हुए उसे चार चरणों अर्थात् आश्रमों में विभाजित करती हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्न्यास। प्रत्येक की संभावित अवधि 25 वर्ष मानी गई। ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति गुरु आश्रम में जाकर विद्याध्ययन करता है, गृहस्थ आश्रम में विवाह, संतानोत्पत्ति, अर्थोपार्जन, दान तथा अन्य भोग विलास करता है, वानप्रस्थ में व्यक्ति धीरे-धीरे संसारिक उत्तरदायित्व अपने पुत्रों को सौंप कर उनसे विरक्त होता जाता है और अन्तत: सन्न्यास आश्रम में गृह त्यागकर निर्विकार होकर ईश्वर की उपासना में लीन हो जाता है।

चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- ये चार पुरुषार्थ ही जीवन के वांछित उद्देश्य हैं उपयुक्त आचार-व्यवहार और कर्तव्य परायणता ही धर्म है, अपनी बौद्धिक एवं शरीरिक क्षमतानुसार परिश्रम द्वारा धन कमाना और उनका उचित तरीके से उपभोग करना अर्थ है, शारीरिक आनन्द भोग ही काम है तथा धर्मानुसार आचरण करके जीवन-मरण से मुक्ति प्राप्त कर लेना ही मोक्ष है। धर्म व्यक्ति का जीवन भर मार्गदर्शक होता है, जबकि अर्थ और काम गृहस्थाश्रम के दो मुख्य कार्य हैं और मोक्ष सम्पूर्ण जीवन का अंति लक्ष्य।

चार योग- ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग तथा राजयोग- ये चार योग हैं, जो आत्मा को ब्रह्म से जोड़ने के मार्ग हैं। जहाँ ज्ञान योग दार्शनिक एवं तार्किक विधि का अनुसरण करता है, वहीं भक्तियोग आत्मसमर्पण और सेवा भाव का, कर्मयोग समाज के दीन दुखियों की सेवा का तथा राजयोग शारीरिक एवं मानसिक साधना का अनुसरण करता है। ये चारों परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि सहायक और पूरक हैं।

चार धाम- उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम- चारों दिशाओं में स्थित चार हिन्दू धाम क्रमश: बद्रीनाथ, रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी और द्वारका हैं, जहाँ की यात्रा प्रत्येक हिन्दू का पुनीत कर्तव्य है।

प्रमुख धर्मग्रन्थ- हिन्दू धर्म के प्रमुख ग्रंथ हैं- चार वेद (ॠग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद) तेरह उपनिषद, अठारह पुराण, रामायण, महाभारत, गीता, रामचरितमानस आदि। इसके अलावा अनेक कथाएँ, अनुष्ठान ग्रंथ आदि भी हैं।

सोलह संस्कारमनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह अथवा सत्रह पवित्र संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं-
गर्भाधान
पुंसवन (गर्भ के तीसरे माह तेजस्वी पुत्र प्राप्ति हेतु किया गया संस्कार),
सीमोन्तोन्नयन (गर्भ के चौथे महीने गर्भिणी स्त्री के सुख और सांत्वना हेतु),
जातकर्म (जन्म के समय)
नामकरण
निष्क्रमण (बच्चे का सर्वप्रथम घर से बाहर लाना),
अन्नप्राशन (पांच महीने की आयु में सर्वप्रथम अन्न ग्रहण करवाना),
चूड़ाकरण (मुंडन)
कर्णछेदन
उपनयन (यज्ञोपवीत धारण एवं गुरु आश्रम को प्रस्थान)
केशान्त अथवा गौदान (दाढ़ी को सर्वप्रथम काटना)
समावर्तन (शिक्षा समाप्त कर गृह को वापसी)
विवाह
वानप्रस्थ
सन्न्यास
अन्त्येष्टि

इस प्रकार हिन्दू धर्म की विविधता, जटिलता एवं बहु आयामी प्रवृत्ति स्पष्ट है। इसमें अनेक दार्शनिकों ने अलग-अलग प्रकार से ईश्वर एवं सत्य को समझने का प्रयास किया, फलस्वरूप अनेक दार्शनिक मतों का प्रादुर्भाव हुआ।

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